बुधवार, 10 सितंबर 2014

मरकाटोला


कहते है भगवान से बड़ा गुरु  होता है ,और बिना गुरु के मार्गदर्शन के भगवान भी स्वयं के  भगवान होने को प्रमाणित नहीं कर पाये थे  |गुरु अर्थात साक्षात "शिव " जिसकी उपासना देव भी करते आये और दानव भी |भगवान भोलेभण्डारी ने किसी के प्रति अन्याय नहीं किया उनकी भक्ति करने वाले देव हो या दानव उसे उसकी भक्ति का उचित फल भी उन्हें दिया |उदहारण के लिए भस्मासुर को ही ले लीजिये ,भस्मासुर एक ऐसा राक्षस था जिसे भगवान शिव जी ने अपना चूड़ा प्रदान किया और उसे वरदान दिया  कि वो जिसके सिर पर हाथ रखेगा, वह  वही  भस्म हो जाएगा। भस्मासुर ने उस  शक्ति का गलत प्रयोग शुरू किया और स्वयं शिव जी को भस्म करना चाहा भस्मासुर कामुक और वासना से वशीभूतर  एक दुष्ट दानव था | शिव जी ने विष्णु जी की सहायता से भस्मासुर को भस्म कर दिया | विष्णु जी ने एक सुन्दर स्त्री का रूप धारण किया, भस्मासुर को अपने आकर्षण में बाँध कर  नृत्य के लिए प्रेरित किया। नृत्य करते समय भस्मासुर विष्णु जी की ही तरह नृत्य करने लगा, और  मौका देखकर विष्णु जी ने अपने सिर पर हाथ रखा, जिसकी नकल  काम के नशे में चूर भस्मासुर ने भी की। भस्मासुर अपने हाथो भष्म हो गया |संस्कारहीनता और अहंकार केवल विनाश को जन्म देता  है |मद में चूर देव हो या दानव या इंसान प्रकृति दंड अवश्य देती है |

वही इसके विपरीत भगीरथ ने भगवान शिवजी की सहायता से अपने पूर्वजो के उद्धार के लिए पवित्र गंगाजी की स्मृति की और वरदान स्वरूप गंगाजी को प्रसन्न किया ,गंगा जी का वेग अधिक था जो पृथ्वी पर आते ही पातळ में समाहित हो जाती ,गंगा जी के वेग को  केवल भगवान शिव जी ही रोक सकते थे ये ज्ञात होने पर भगीरथ ने  भगवान शिव जी की घोर तपश्या की और भगवान शिव ने प्रसन्न हो कर गंगा को अपनी जटाओ पर स्थान दिया|भगवान शिव ने गंगाजी को शांत स्वरूप में मृतलोक पर उतारा |जिससे भगीरथ ने अपने पूर्वजों का तर्पण किया और लोककल्याण के लिए आज भी गंगा जी सब को तार रही है | गंगा जी जब गंगोत्री में आई वाहा से नदी का वेग बन गयी जो सात धाराओ में विभक्त हो कर बहने लगी ,यही सप्तऋषियों, वसिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज का अभुदय हुआ जिन्ह्ने इन स्थानो पर तप कर तीर्थ स्थान बना दिया |यही से सात पहाड़ ,सप्तलोक ,सप्तसागर ,और सप्तजीवन का यथार्थ सामने आया |

जैसा की हम जानते है  मानव जीवन ऋषिपरम्परा से जुड़ा हुआ है जिससे गोत्र बना है |यही सप्त ऋषि क्या वर्तमान में भी हमारे इर्द गिर्द है यह सोच ही मुझे धमतरी से २४ किलो मी दूर मरकाटोला ले आया था  |
मरकाटोला अपने आप में ही रहस्यमयी स्थान है तीन जिलो (धमतरी ,कांकेर और बालोद )के बीच घिरा यह स्थान अपने आप में अद्भुत है | धमतरी पहुचने के बाद हम मरकाटोला के लिए रवाना हो गए थे |रास्ते में एक टीला मिला जिन पर कुछ मुर्तिया ,घोड़े और सफ़ेद रंग के झंडे लगे हुए थे |पूछने पर पता चला यह किसी बाबा की समाधि स्थल है  | 




इस थान से दाहिनी औऱ फोरेस्ट बैरियर से ढाई किमी दूर ‘कंकालिन शक्ति-पीठ’ मंदिर स्थित है। यह शक्ति-पीठ बियावान जंगल में एक पथरीली चट्टान पर है। यह साक्षात महाकाली का ही मंदिर है |सड़क से पता ही नहीं चलता कि जंगल के अंदर शक्ति-पीठ है |यहाँ आ कर मैंने महाकाली की पूजा अर्चना की ,मन में अपार शांति तो था ही साथ ही यहाँ के सत्य को जानने की उत्सुकता बनी हुई थी   |आदिवासी प्रायः वन देवी ,दुर्गा देवी एवं महाकाली  के अनन्य भक्त होते है |जिनके प्रमाण यहाँ दिखाई देते है |कंकालिन देवी की आदमकद प्रतिमा के दोनों पार्श्व में हाथी की मूर्तियाँ, दाहिने पार्श्व में घोड़े की सफेद  मूर्ति तथा बस्तर के शिल्प की अनमोल कृतियाँ पूजन स्थल में रखी हुई थी  जो अपने आप में अद्भुत तो है ही साथ ही रहश्यमय भी |











इसी मंदिर से लगा सात  समाधिस्थल भी बना हुआ है | कहा जाता हैं यह सातो समाधि  उन महान बाबाओ की है जो यहाँ रह कर  महाकाली की पूजा अर्चना किया करते थे |जो की  बड़िया बाबा ,राजाराव बाबा ,लिंगो बाबा ,पागलबाबा  आदि के मंदिर के रूप में  है। 








इन में से राजाराव बाबा महत्वपूर्ण है जो  कंकालिन माता की शक्ति-पीठ में पूजा-अनुष्ठान आदि कराया करता था। कंकालिन शक्ति-पीठ के बाजू में बाँयीं ओर ‘बूढ़ा देव’ का मंदिर है। आदिवासी अपने आराध्य देव महादेव को ‘बूढ़ा’ कहा करते हैं। यही मंदिर के प्रागण्य में एक झोपडी नुमा घर बना हुआ है कहा जाता है बाबा अपना भोजन यही पकाया करते थे |
सड़क पर बने देवस्थान  से जंगल के अंदर २ किलो  मी  की दुरी पर राजाराव का असली समाधि स्थल है |सुनसान यह स्थान अपने आप में रोमांचकारी लगता है |कहते है राजाराव को गुरु , महानतांत्रिक,संत ,योगी के रूप में पूजा जाता है |क्वीदंति है की एक बार महाकाली के वीरशक्तियो के दुष्प्रभाव से गाँवो  में महामारी होने लगा लोगो के ऊपर घोर विपत्ति आने लगा ,जिसे राजाराव ने स्वयं को देवी में समर्पित कर देवी के महाकोप से गाँवो को मुक्त कराया |यही राजाराव की असली समाधि स्थल हैं |यहाँ आज भी शक्तिया विचरण करती है |यह राजाराव कोई और नहीं महान सप्त ऋषि में से एक है|जिससे गुरु शिष्य परम्परा का अभुदय हुआ है |बैगा ,हो या तांत्रिक यहाँ के आदिवासी लोग आज भी यहाँ आ कर पूजा अर्चना कर देवी देवताओ को प्रसन्न करते है |सात समाधि स्थल सात ऋषि ही है |जो आज भी किसी न किसी रूप में हमारे आस पास प्रत्यक्ष और परोक्ष  रूप से मौजूद  है|

गुरुवार, 15 अगस्त 2013


" त्र्यम्बकेश्वर"11agust2013 





मेरी यात्रा के इस श्रृखला में " त्र्यम्बकेश्वर"की यात्रा मेरी अभी तक की यात्राओ में सबसे ज्यादा रोमांचक रही है ११ अगस्त २०१३ को मैंने भगवान् शंकर के १० ज्योतिर्लिंग जो साक्षात् भगवान् शिव का शरीर माना जाता है के दर्शन किये |बादलो की धुंध से ढका हुआ ब्रम्हगिरि पर्वत मानो आसमान को नीचे उतार लाया हो यहाँ का अद्भुत दृश्य अपने आप में सौन्दर्य से भरा हुआ है पानी की बूंदाबांदी ने इस दिव्या स्थली को मानो और भी सुन्दर बना दिया हो ?मुझे केदार में हुई घटना का काफी दुःख था सच बताऊ तो भगवान से मै काफी नाराज थी यहाँ आने का प्रोग्राम अचानक बन गया था ,मुझे भगवान् के प्रति उदासीनता सी थी और अपने माता पिता की चिंता ?मै केवल इतना ही सोच कर यहाँ आई थी की रोज रोज की व्यवस्तम दिनचर्या से थोडा राहत मिल जाएगा और मम्मी -पापा को भगवान् का दर्शन मिल जायेगे |पर यहाँ आने के बाद भगवान् शिव के प्रति मेरी सारी नाराजगी जाती रही |यहाँ पहुच कर मैंने सपरिवार मंदिर की प्रदक्षिणा की और भगवान के त्रयम्बक स्वरूप के दर्शन किये |अपने पूर्वजो को तर्पण दे कर मेरे स्वजन भी प्रसन्नचित और शांत दिखे | यह मन्दिर महाराष्ट्र-प्रांत के नासिक जिले में है |ब्रह्म गिरि नामक पर्वत जिसका सौन्दर्य देखते ही बनता है यही से गोदावरी नदी का उद्गम हुआ है। गोदावरी के उद्गम-स्थान के समीप त्रयम्बकेश्वर-भगवान शिव जी का मंदिर है |कहा जाता है गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भगवान शिव इस स्थान में वास करने की कृपा की और त्र्यम्बकेश्वर नाम से विख्यात हुए। मंदिर के अंदर एक छोटे से गङ्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग है, ब्रह्मा, विष्णु और शिव- इन तीनों देवों के प्रतिक माने जाते हैं। गोदावरी नदी के किनारे स्थित त्र्यंबकेश्‍वर मंदिर काले पत्‍थरों से बना है। मंदिर का स्‍थापत्‍य अद्भुत है। इस मंदिर के पास ही कुशावर्ती तीर्थ है जहा स्नान ध्यान कर लोग अपने पूर्वजो को तर्पण देते है |‘कुशावर्त तीर्थ की जन्मकथा काफी रोचक है। कहते हैं ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी नदी बार-बार लुप्त हो जाती थी। गोदावरी के पलायन को रोकने के लिए गौतम ऋषि ने एक कुशा की मदद लेकर गोदावरी को बंधन में बाँध दिया। उसके बाद से ही इस कुंड में हमेशा लबालब पानी रहता है। इस कुंड को ही कुशावर्त तीर्थ के नाम से जाना जाता है। कुंभ स्नान के समय शैव अखाड़े इसी कुंड में शाही स्नान करते हैं।’यहाँ कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि की पूजा संपन्‍न होती है।



शिरडी के साईं बाबा के प्रति मेरी आस्था बचपन से रही है |यहाँ आने का सौभाग्य मुझे तीसरी बार १०अगस्त २०१३ को पुनः मिला ,मेरी यात्रा के दौरान इस पावन धरती को चरणस्पर्श कर मै स्वयं को धन्य मानती हु |जीवन में बिना गुरु के ज्ञान संभव नहीं है मेरे गुरु साईं बाबा रहे है जो मेरे लिए इस धरती पर प्रत्यक्ष सूर्य है जिन्होंने काफी कठिनाई से अपना जीवन व्यतीत किया और लोगो के बीच ज्ञान ,आस्था ,विश्वाश और समानता के दीप जला दिए |बाबा सच्चे सद गुरु है |शिर्डी आने के बाद आज मेरे मन में अपार शांति है |दुःख के बाद सुख का आना संसार का नियम है वही बाबा का हर परिस्थिति में सौम्य रहना जीवन का यथार्थ सत्य है |मैंने अपने जीवन में बाबा से बहुत कुछ सीखा है |आज मै जो कुछ भी हु बाबा की कृपा से हूँ | 
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बुधवार, 18 जनवरी 2012

त्रिवेंद्रम:पद्मनाभ मंदिर




त्रिवेंद्रम मेरे पिता का गृहग्राम |केरल की राजधानी मानी जाने वाली यह दिव्या नगरी का शुद्ध नाम तिरुअनंतपुरम है |पुराणों में इसका उल्लेख अनंतवनम के नाम से है |यह प्राचीन त्रावनकोर राज्य तथा वर्तमान में त्रावनकोर -कोचीन प्रदेश ,केरल की राजधानी है |नगर के मध्य में यहाँ के राजा का किला है |किले के भीतर ही पद्मनाभ मंदिर है जिसमे भगवन विष्णु पद्मनाभ स्वरुप में अनन्त शैया में प्रतिस्थापित है |इन्हें अनन्त शयन भी कहते है |यह मंदिर  हमारे घर के पास ही होने के कारण मै केरल जाने पर इस मंदिर के हमेशा दर्शन करती हु |शेषशैया में शयन किये भगवान पद्मनाभ की विशालमूर्ति देखने पर लगता है मानो सक्षात भगवान लेटे हो |मंदिर की दिव्यता वहा जाने पर ही बयान हो सकती है |मंदिर के अन्दर कई गोपुरम है जिनमे वास्तुकला का अतिप्राचीन कलाकौसल देखने को मिलता है |मुख्या मंदिर के चारो और देवी देवताओ के विभिन्न मुद्राओ में मुर्तिया स्थापित है जो प्राचीनकाल के राजाओ की ख्याति .समृद्धि और  उत्कृष्ट कारीगरों के कला का स्वयं परिचय देती है |भगवान् की इतनी बड़ी मूर्ति मैंने कभी नहीं देखि न ही अन्य जगह पर होगी |
भगवान्  के नाभि से निकले कमल पुष्प में ब्रम्हाजी विराजमान है |भगवान का दाहिना हाथ शिवलिंग के ऊपर पर स्थित है |इस मूर्ति का श्रीमुख के दर्शन पहले द्वार से वक्षस्थल तथा नाभि के दर्शन  द्वितीय द्वार से और श्री चरणों के दर्शन तीसरे द्वार से होते है |मंदिर से बाहर आकर प्रदिक्षना करने पर मंदिर के पूर्व में स्वर्णमंडित गरुड स्तम्भ है |दक्षिण भाग में हरिहर पुत्र का छोटा मंदिर है |मंदिर के पश्चिम भाग में श्रीकृष्ण का मंदिर है |मंदिर के दक्षिण भाग में एक शिशु विग्रह है |श्रीदेवी ,भूदेवी ,नीलादेवी भगवान की तीन शक्तिओ का विग्रह भी शोभनीय है |वर्ष २०१० में मेरी केरल यात्रा के दौरान मुझे सपरिवार पुनः पद्मनाभ स्वामी के दर्शन का सौभाग्य मिला |मंदिर के अहाते में पहुचते ही काफी भीड़ के कारण धक्का -मुक्की में भगवान के दर्शन मिले पसीने से तर -बदर मंदिर के एक कोने में जा कर मै अपनी मम्मी के साथ खड़ी  हो गयी |मंदिर की मूर्ति और अन्य विग्रह काले कसौटी के पत्थर से बना हुआ है जिस पर स्वर्ण की परत जड़ दी गयी है | |नमी के कारण जमीं पर मेरे पैर फिसलने लगे थे |मैंने मम्मी से यु ही तुक्के में कहा जहाँ पर खड़ी हु वहा जरुर कुछ है |नीचे कही तहखाना तो नहीं ?यहाँ की उष्णता और वातावरण सहज नहीं है |नीचे मेरे पैर के पास किसी का चढाया सिक्का गिरा हुआ था मैंने उसे उठा कर दान पेटी में चढाया और मम्मी से कहा की यहाँ बहुत धन है |और केरल से आने के बाद २०११ में जब पद्मनाभ स्वामी क्षेत्र  में अत्यधिक सोने चांदी का खजाना  मिला। सुन कर मै और मम्मी एक दुसरे का मुह देखने लगे |भगवान् के गर्भ गृह में ना जाने कितने खजाने है |पर मै उनका सानिध्य अपने जीवन में पद्मपुष्प की तरह चाहती हु |जो मुझे विकारों से हमेश मुक्त रख मुझे ज्ञान का खजाना दे |

"भद्राचलम









मेरी यात्रा कि इस कड़ी में यह यात्रा भी मेरे जीवन कि महत्वपूर्ण कड़ी है |जगदलपुर (छत्तीसगढ़ ) १८४ किमी "कोंटा" में मेरे मामा जी रहते है |हम हर साल गर्मियों कि छुट्यो में कही न कही अवश्य जाया करते थे इस बार पापा ने कोंटा और भद्राचलम जाने का प्रोग्राम बना लिया था |अप्रैल कि भीषण गर्मी में यात्रा मेरे लिए हमेशा कष्टकारी रहा करती है |गर्मियों का मौसम शुरू होते ही फ्रिज का मुख  मानो मेरी तरफ खुल जाता हो |मै बचपन से ही खोजी प्रवृत्ति कि रही हु |क्यों?किसलिए ?यही दिमाग में घुमा करता रहता |जीवन में महानदी के सिवाय मैंने कभी बड़ी नदी नहीं देखि थी |इस बार कि यात्रा में गोदावरी नदी के दर्शन होने थे इसलिए भी इस यात्रा के लिए मै पूरी तरह तैयार थी |यहाँ से सोच कर निकली थी कि नदी में पहुच कर मै ढेर सारे पत्थर इकट्ठे करुगी और यहाँ आने पर उसे इक्युव्रियम में सजा कर रखुगी |सच है बचपन कभी लौट कर नहीं आता |पर जब पीछे पलट कर देखती हु तो यादो में काफी यादगार पल है जिसे मैंने जिया और समय ने उसे जिवंत कर दिया |कोंटा पहुच कर हम एक दो दिन विश्राम किये फिर भद्राचलम कि ओर निकल पड़े |कोंटा से 68 कि मी दूर भद्राचलम कि यात्रा मै आज भी नहीं भूल सकती |मेरा जन्म जगदलपुर में हुआ है इसलिए प्रायः मुझे सब बस्तरहीन कह कर  चिढाया करते |मामा मुझे डराने के लिए अबूझमाढ़ के आदिवासियों कि वेषभूषा ,तीर कमान और मनुष्यों को खा जाने वाली बात कह कर खूब डराया करते थे |संयोग से बस में मेरे  बगल में तीर कमान वाले लोग ही आ कर बैठ गए मेरी तो सिट्टी -पिट्टी ही गूम हो गयी |मामा सामने वाले सिट पर बैठे मेरा चेहरा देख कर मुस्कुराए जा रहे थे |पर इस यात्रा में मेरा सारा भय  जाता रहा|अपनी सुरक्षा सभी चाहते है |तभी बस कंडक्टर ने टिकट के लिए उन्हें जोर से आवाज लगाया और विशुद्ध भाषा में बात करने लगा | तीर कमान पकड़ा व्यक्ति बड़ी सहजता से उठ कर टिकट लेने लगा ,तब मै सोच रही थी ज्ञान का आभाव इन्हें है ?या कंडक्टर को ?उनकी सहजता भोलापन साफ झलक रहा था |इन्सान केवल प्रेम का भूखा है उपेक्षित व्यवहार ही इन्सान को हिंसक बना देता है |भद्राचलम पहुच कर मैंने गोदावरी नदी के दर्शन किये |गोदावरी तट पर ही भगवान् श्रीराम जी का प्राचीन मंदिर है |मुख्य मंदिर के पास ही 20 -25 छोटे मंदिर है |मुख्य मंदिर में श्री राम ,जानकी एवं लक्ष्मण कि मुर्तिया है |अन्य मंदिरों में हनुमान ,गणेश आदि देवी देवताओ कि मुर्तिया है |इस मंदिर को संत रामदास ने बनवाया था |गोदावरी नदी कि सात धाराए है जो गोदावरी स्टेशन से कोटिपल्ली तक विस्तृत है |जिसे सप्तगोदावरी तीर्थ कहते है |इन मुख्य धाराओ का नाम -तुल्याभागा ,आत्रेयी ,गौतमी ,वृद्ध-गौतमी ,भरद्वाजा ,कौशिकी ,और वशिष्ठ है |मैंने गोदावरी तट से ढेर सारे पत्थर इकाट्ठे किये जो आज भी यादगार के रूप में मेरी मछलियों को नदी में तैरने का अहसास दिलाते है |
भगवान् श्री रामचन्द्र जी कलयुग में श्रीनिवासन के रूप में तिरुमला में विराजमान है लेकिन यहाँ आने पर ऐसा लगता है हम राम जी के युग में आ गये ।भगवान से मेरी यही प्रार्थना है दक्षिण बस्तर में नक्सलवादिता ,आतंक और खौफ का जीवन यही अंत ले और फिर से राम का युग आये ।गोदावरी नदी के तट की गरिमा खून से नहीं सुबह और शाम की लालिमा  से गौरवशाली सत युग की जीवन की गाथा को दोहराए ।

मंगलवार, 17 जनवरी 2012

2010वायनाड










१९ जनवरी २०१० को मेरे जीवन की एक नई यात्रा शुरू होने वाली थी ,व्यवस्तम दिनचर्या और रोज की आपाधापी के बीच केरल की यात्रा का प्रोग्राम मेरे लिए पुनः एक नई उत्साह और शुकून देने वाला साबित हुआ |जीवन में कई विषमताए है ,कुछ घटनाक्रम ऐसे होते है जो मन को काफी व्यथित कर देते है|सत्य तो यह है की मनुष्य अपने गम से कम अपने आसपास के वातावरण से ज्यादा दुखी रहता है|ऐसी स्थिति में स्थान परिवर्तन या पर्यटन स्थल की सैर शारीरिक सुख से अधिक मानसिक सुकून दे जाता है|जीवन के प्रति एक नया आयाम ,एक जागृती पुनःजीवन को जीने की कला सीखा जाता है |

वायनाड की यात्रा मेरे लिए एक नए वातावरण को जन्म देने जा रहा था |मै यह यात्रा शायद कभी न भूलू क्योकि इस दौरान मै जीवन के बहुत ही कठिन दौर और मानसिक अवसाद से गुजर रही थी |एक ज्योतिष होने के नाते भुत ,भविष्य और वर्तमान का अध्यन मेरा शौक रहा था |प्रत्यक्ष रूप से इंसानी फितूर के रूप में ग्रह कैसे एक दुसरे को हताहत करते है मैंने इसी दौरान जाना |मैंने अपने छोटे से जीवन काल में लोगो की कई समस्याओ से अवगत हुई कई मामले दिल को दहला देने वाले होते वही मै सभी परिवेश से हट के वायनाड जाने का फैसला की जो सही और सार्थक रहा |
"वायनाड " केरल के उत्तर पूर्व में बसा एक मनोरम पर्यटन स्थल है| प्राकृतिक सौन्दर्य से सुशोभित "वायनाड"का सोंदर्य देखते ही बनता है|मैंने जीवन में पहाडियों से घिरा इतना मनोरम स्थान कभी नहीं देखा था |९ कर्व (घाटी)को पार कर पहाड़ो में बसा "वायनाड"मानो धरती में स्वर्ग का उपवन हो |चारो तरफ हरियाली और रास्ता |मेरी भाभी वायनाड की रहने वाली है |इसलिए भी यह जगह मेरे लिए महत्वपूर्ण है इसी बहाने यहाँ की प्रकृति से भी मेरा रिश्ता बन गया है |यहाँ का मौसम हमेशा ठंडक लिए रहता है |चारो तरफ चाय के बागान है|मानो  धरती ने हरी रेशमी चादर ओढ़ रखी हो | ..............क्रमश 

गुरुवायुर







 गुरुवायुर केरल का सर्वाधिक पवित्र मंदिर ,कहा जाता है द्वापर युग में द्वारका जी में अवस्थित गुरु और वायु के रूप में प्रतिस्थापित प्रतिमा यहाँ स्थापित है |सुदर्शन चक्रधारी नारायण के स्वरुप में यह प्रतिमा प्राणीमात्र के लिए यहाँ  विराजमान है |जिनके वाम हस्त में शंख ,दक्षिण हस्त में चक्र और दोनों हस्त में गदा और कमल पुष्प है |भगवान् श्री नारायण की यह प्रतिमा बाल युवा और वृद्ध रूप में दर्शनीय है |केरल के प्रजागण की विशेष आस्था इस मंदिर से जुडी हुई है |मेरे लिए भी यह मंदिर अपने आप में साक्षात् जमीं पर देवालय है |जब भी मै अपने परिवार के साथ यहाँ आती हूँ तो पहले यहाँ आ कर भगवान् गुरुवायुर के दर्शन के बाद ही आगे की ओर बढती हूँ |
मै जब पहली बार गुरुवायुर गई तो मेरी उम्र 12 वर्ष ही थी |बचपन से परिवार का वातावरण पूजापाठ का रहा था इसलिए भगवान् पर मेरी आस्था थी पर मै प्रत्यक्ष देव शिव को ही मानती थी |हिन्दू संस्कृति में देवी-देवताओ की भरमार सी है कोई कृष्ण भक्त है तो कोई शिव भक्त या फिर देवी उपासक |पर मेरी भक्ति केवल शिव जी तक ही निहित रही थी |सुबह स्नान के बाद पास के ही शिव मंदिर जा कर पूजा कर के ही जलपान ग्रहण करना मेरी दिनचर्या की शुरुवात रहती |अन्य धार्मिक स्थल मेरे लिए केवल सैर सपाटे तक ही प्रिय रहता |पापा शुरू से ही धार्मिक स्थलों और पर्यटन के शौकीन थे इस लिए हर वर्ष गर्मियो को छुट्टियो में वे हमें कही न कही अवश्य  ले जाते ,इस बार की केरल यात्रा में पापा ने पहले ही कह रखा था की मंदिर की पूजा सुबह 3 -4 बजे सुबह से ही शुरू हो जाती है इसलिए वहा पहुच कर सब समय में उठ कर दर्शन के लिए तैयार रहे |गुरुवायुर मंदिर के पास ही के एक होटल में हमने रूम ले रखा था ताकि समय से उठ कर हम भगवान के दर्शन  कर सके |मै इस लम्बी यात्रा से काफी थकी हुई थी इसलिए अर्धरात्रि को उठ कर नहाने का मेरा जरा भी मन नहीं था |सब 2 बजे रात से ही उठ के तैयारी में लग गये |थकान के मारे मेरी आँख ही नहीं खुल रही थी |तभी पता नहीं सपना था या सच ?पुरे कमरे में सन्नाटा स छा गया |चारो तरफ धुंध छा गया हो अष्टगंध की खुशबु से पूरा कमरा महकने लगा |अचानक दरवाजा खुला और एक सुन्दर स बालक मेरे सिरहाने आया और बोला "चलो उठो मेरे दर्शन नहीं करना ?"ये सुन कर मेरी आंखे खुल गई चारो तरफ अँधेरा था सब नहा कर तैयार हो कर टेरिस में मेरे उठने का इन्तजार कर रहे थे |मेरे कानो में बार बार वही आवाज गूंज रहा था |तैयार हो कर मै मंदिर के प्राग्णन में पहुच गई |श्री हरी के मंत्रो से सारा वातावरण गूंज रहा था मेरे अन्दर अपार शांति और श्रद्धा उमड़ रही थी |आँखों से आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे |संसार के सच से अनभिज्ञ मै , मेरी छोटी सी दुनिया में भगवान् गुरुवायुर को भी शामिल कर दी थी |भगवान् के दर्शन पा कर मै स्वयं को धन्य मान रही थी उस समय ये मेरे बचपन की यादे रही है पर आज मै इश्वरी सत्ता के आयाम को बखूबी समझ सकती हूँ |मंदिर में भीमकाय देवताओ एवं ऋषि -मुनियों की मुर्तिया मुझे अध्यात्म और अथाह ज्ञान के भंडार की प्रेरणा देते है |गुरु के रूप में प्राणरूपी  वायु के वेग -प्रवेग को मै आज समझ सकती हु |सक्षात श्री नारायण की दिव्यता को महससू कर सकती हूँ |
केरल की यह दिव्या स्थली स्वयं में नगण्य है |कार्तिक महीने की एकादशी में यहाँ मंदिर में विशेष उत्सव मनाया जाता है |मंदिर में बाल भोज एवं वैवाहिक संस्कार की विशेषता है |कहा जाता है एक गरिए का मरीज यहाँ भक्त बन कर गाया  करता था जो इश्वर की असीम कृपा से रोग मुक्त हो गया अतः यह विश्वास किया जाता है की यहाँ प्रार्थना करने पर अनेक प्रकार के रोगों से मुक्ति मिलती है |



गुरुवायुर का इतिहास :


कहां जाता है श्री कृष्ण ने अपने परम मित्र उद्धव को एक बार गुरु वृहस्पति के पास अत्यंत महत्वपूर्ण सन्देश भेजा की समुन्द्र द्वारका पूरी को डूबा दे इसके पूर्व उनके पिता वासुदेव और माता देवकी जिस मूर्ति की पूजा किया करते उसे पवित्र स्थान में प्रतिष्ठित कर देवे|भगवान् ने उद्धव को बताया की यह प्रतिमा साधारण नहीं है कालांतर में यह प्रतिमा कलयुग में अपने भक्तो के लिए कल्यानप्रद सिद्ध होगी  |यह सन्देश पा कर गुरु वृहस्पति द्वारिका गये किन्तु उस समय तक द्वारिका जलमग्न हो चूका था |उन्होंने अपने शिष्य वायु के सहायता से उस विग्रह को जल से निकाला और इसे सुरक्षित स्थान में प्रतिष्ठित करने के लिए इधर उधर भटकने लगे |पहले जहाँ यह मूर्ति प्रतिष्ठित थी उस समय वहां कमलपुष्पो से युक्त मनोरम झील थी जिसमे शिव जी और माता पार्वती जलक्रीडा किया करते जो इस अत्यंत पवित्र मूर्ति की प्रतीक्षा कर रहे थे |वृहस्पति जी वहा पहुचे और शिव आज्ञा से वायु की सहायता से मूर्ति को यथा स्थान स्थापित किया तभी से उस स्थान का नाम "गुरुवायुर "पड़ा |मंदिर का निर्माण देवताओ और विश्वकर्मा द्वारा किया गया है यहाँ की कला अत्यंत उत्कृष्ट तथा मानषोत्तर कौसल युक्त है |


मूर्ति का इतिहास :


भगवान् विष्णु ने सर्वप्रथम अपनी यह साक्षात् मूर्ति ब्रम्हा जी को उस समय दी जब वह सृष्टि का निर्माण कर रहे थे ,उस समय स्वयंभू मन्वंतर प्रजापति "सुतपा "और उनकी पत्नी पृश्नी ने पुत्र प्राप्ति के लिए ब्रम्हा जी की अराधना की जिसे ब्रम्हा जी ने प्रसन्न हो कर उने प्रदान किया और उसकी उपासना का आदेश दिया |भगवान ने प्रकट हो कर पुत्र रूप में जन्म लेने का वचन दे कर अन्तर ध्यान हो गये |उसके पश्चात् पृथ्वीगर्भ के रूप में अवतरित हुए | दुसरे जन्म में सुतपा कश्यप तथा पृश्नी अदिति बनी |उस समय भगवान् "वामन "रूप में अवतरित हुए तीसरे जन्म में सुतपा "वासुदेव "और पृश्नी "देवकी "बनी तब भगवान् श्री कृष्ण ने उनके गर्भ से जन्म लिया |यह मूर्ति "धौम्य "ऋषि ने वासुदेव को दिया था जिसे द्वारिका में प्रतिष्ठित किया गया  और उसकी पूजा अर्चना की थी ||